शुक्रवार, 19 जुलाई 2019

बैरी सावन



सावन अबकी सबके आंगन, झूम-झूम बरसा
मेरे मन-प्रांगण का पौधा, पानी बिन तरसा...।


मरक रही है रौनक सारी
ढरक रहीं हैं अखियां कारी

सिसक रहा मौसम मिजाज का, बैरी मन हुलसा...।
सावन अबकी सबके आंगन, झूम-झूम बरसा ।।

हरियाली की दशा विकट है
पीलापन खड़ा निकट है

भाव-क्षितिज पर स्वच्छ चांदनी, ओढ़ रही आशा...।
सावन अबकी सबके आंगन, झूम-झूम बरसा ।।

धीर-शैल स्खलित हो रहा
सत-साधन निस्फलित हो रहा

कैसा यह मौसम आया है, मेरा तन झूलसा...।
सावन अबकी सबके आंगन, झूम-झूम बरसा ।।


पर धरती से प्ररित हूं मैं
अंबर से उत्प्रेरित हूं मैं

धूप, घाम या क्षोभ-सर लगे, जीना है अरसा...।
सावन अबकी सबके आंगन, झूम-झूम बरसा ।।


सोमवार, 23 अप्रैल 2012

वह


उनका कचरा
उसकी रोटी
दिनभर चुनती
रात को सोती
ऐसी है व्यवस्था
या किस्मत ही फूटी
सोच-सोच के वह है रोती

बुधवार, 29 फ़रवरी 2012

देवी प्रसाद मिश्र की एक कविता


बीज 
मैंने प्लेट में टमाटर के ऐसे टुकड़े देखे
जो मैंने पहले कभी नहीं देखे थे मतलब
कि ऐसे कि जैसे ताज़ा ख़ून से भरे हों
उनका वलय भी बड़ा था उनके बीज भी
मोतियों सरीखे थे मेरे मेज़बान ने उन
टुकड़ों को मेरी प्लेट में रख दिया मैंने
महसूस किया कि इस आदमी के हाथ
बहुत बड़े हैं इतने कि वह मेज़ के आरपार
अपना हाथ ले जा सकता है और चाहे तो
मेरी गर्दन भी पकड़ सकता है वह इतना लंबा है
कि मेरे सिर पर अपनी प्लेट रख कर
अपना खाना खा सकता है मैंने टमाटर
के टुकड़ों को थोड़ा दहशत के साथ देखते
हुए कहा कि आप के हाथ बहुत लंबे हैं तो
उसने थैंक यू कहा - यह लगा कि उसने
मुझे डाँटा मतलब कि उसकी कृतज्ञता में
सपाटता थी और उसने बहुत बेरुख़ी से
बताया कि वह एक मल्टीनेशनल में
सेल्ज़ में है और फिर वह मुझे इस तरह
देखता रहा कि जैसे वह यह बताना चाहता
हो कि मेरे कितने कम दाम लगेंगे
जिस टमाटर से यवतमाल के किसान का ताज़ा ख़ून
जैसा रिस रहा था उस टमाटर के बारे में
उसने बताया कि यह जेनेटिकली मॉडीफ़ाइड बीज
वाला टमाटर है जिसके बीज अमेरिका में
तैयार किये गये हैं जान यह पड़ता था कि
बहुत लंबे हाथों वाला वह आदमी भी ऐसे ही
किसी बीज से पैदा हुआ था जिसे विकसित
करने में अमेरिका ने बरसों मदद की हो

मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको.



अदम गोंडवी की कलेजा हिलाती कविता
आइए महसूस करिए ज़िन्दगी के ताप को
मैं चमारों की गली तक ले चलूँगा आपको

जिस गली में भुखमरी की यातना से ऊब कर
मर गई फुलिया बिचारी कि कुएँ में डूब कर

है सधी सिर पर बिनौली कंडियों की टोकरी
आ रही है सामने से हरखुआ की छोकरी

चल रही है छंद के आयाम को देती दिशा
मैं इसे कहता हूं सरजूपार की मोनालिसा

कैसी यह भयभीत है हिरनी-सी घबराई हुई
लग रही जैसे कली बेला की कुम्हलाई हुई

कल को यह वाचाल थी पर आज कैसी मौन है
जानते हो इसकी ख़ामोशी का कारण कौन है

थे यही सावन के दिन हरखू गया था हाट को
सो रही बूढ़ी ओसारे में बिछाए खाट को

डूबती सूरज की किरनें खेलती थीं रेत से
घास का गट्ठर लिए वह आ रही थी खेत से

आ रही थी वह चली खोई हुई जज्बात में
क्या पता उसको कि कोई भेड़िया है घात में

होनी से बेखबर कृष्ना बेख़बर राहों में थी
मोड़ पर घूमी तो देखा अजनबी बाहों में थी

चीख़ निकली भी तो होठों में ही घुट कर रह गई
छटपटाई पहले फिर ढीली पड़ी फिर ढह गई

दिन तो सरजू के कछारों में था कब का ढल गया
वासना की आग में कौमार्य उसका जल गया

और उस दिन ये हवेली हँस रही थी मौज़ में
होश में आई तो कृष्ना थी पिता की गोद में

जुड़ गई थी भीड़ जिसमें जोर था सैलाब था
जो भी था अपनी सुनाने के लिए बेताब था

बढ़ के मंगल ने कहा काका तू कैसे मौन है
पूछ तो बेटी से आख़िर वो दरिंदा कौन है

कोई हो संघर्ष से हम पाँव मोड़ेंगे नहीं
कच्चा खा जाएँगे ज़िन्दा उनको छोडेंगे नहीं

कैसे हो सकता है होनी कह के हम टाला करें
और ये दुश्मन बहू-बेटी से मुँह काला करें

बोला कृष्ना से बहन सो जा मेरे अनुरोध से
बच नहीं सकता है वो पापी मेरे प्रतिशोध से

पड़ गई इसकी भनक थी ठाकुरों के कान में
वे इकट्ठे हो गए थे सरचंप के दालान में

दृष्टि जिसकी है जमी भाले की लम्बी नोक पर
देखिए सुखराज सिंग बोले हैं खैनी ठोंक कर

क्या कहें सरपंच भाई क्या ज़माना आ गया
कल तलक जो पाँव के नीचे था रुतबा पा गया

कहती है सरकार कि आपस मिलजुल कर रहो
सुअर के बच्चों को अब कोरी नहीं हरिजन कहो

देखिए ना यह जो कृष्ना है चमारो के यहाँ
पड़ गया है सीप का मोती गँवारों के यहाँ

जैसे बरसाती नदी अल्हड़ नशे में चूर है
हाथ न पुट्ठे पे रखने देती है मगरूर है

भेजता भी है नहीं ससुराल इसको हरखुआ
फिर कोई बाँहों में इसको भींच ले तो क्या हुआ

आज सरजू पार अपने श्याम से टकरा गई
जाने-अनजाने वो लज्जत ज़िंदगी की पा गई

वो तो मंगल देखता था बात आगे बढ़ गई
वरना वह मरदूद इन बातों को कहने से रही

जानते हैं आप मंगल एक ही मक़्क़ार है
हरखू उसकी शह पे थाने जाने को तैयार है

कल सुबह गरदन अगर नपती है बेटे-बाप की
गाँव की गलियों में क्या इज़्ज़त रहे्गी आपकी

बात का लहजा था ऐसा ताव सबको आ गया
हाथ मूँछों पर गए माहौल भी सन्ना गया था

क्षणिक आवेश जिसमें हर युवा तैमूर था
हाँ, मगर होनी को तो कुछ और ही मंजूर था

रात जो आया न अब तूफ़ान वह पुर ज़ोर था
भोर होते ही वहाँ का दृश्य बिलकुल और था

सिर पे टोपी बेंत की लाठी संभाले हाथ में
एक दर्जन थे सिपाही ठाकुरों के साथ में

घेरकर बस्ती कहा हलके के थानेदार ने -
"जिसका मंगल नाम हो वह व्यक्ति आए सामने"

निकला मंगल झोपड़ी का पल्ला थोड़ा खोलकर
एक सिपाही ने तभी लाठी चलाई दौड़ कर

गिर पड़ा मंगल तो माथा बूट से टकरा गया
सुन पड़ा फिर "माल वो चोरी का तूने क्या किया"

"कैसी चोरी, माल कैसा" उसने जैसे ही कहा
एक लाठी फिर पड़ी बस होश फिर जाता रहा

होश खोकर वह पड़ा था झोपड़ी के द्वार पर
ठाकुरों से फिर दरोगा ने कहा ललकार कर -

"मेरा मुँह क्या देखते हो ! इसके मुँह में थूक दो
आग लाओ और इसकी झोपड़ी भी फूँक दो"

और फिर प्रतिशोध की आंधी वहाँ चलने लगी
बेसहारा निर्बलों की झोपड़ी जलने लगी

दुधमुँहा बच्चा व बुड्ढा जो वहाँ खेड़े में था
वह अभागा दीन हिंसक भीड़ के घेरे में था

घर को जलते देखकर वे होश को खोने लगे
कुछ तो मन ही मन मगर कुछ जोर से रोने लगे

"कह दो इन कुत्तों के पिल्लों से कि इतराएँ नहीं
हुक्म जब तक मैं न दूँ कोई कहीं जाए नहीं"

यह दरोगा जी थे मुँह से शब्द झरते फूल से
आ रहे थे ठेलते लोगों को अपने रूल से

फिर दहाड़े, "इनको डंडों से सुधारा जाएगा
ठाकुरों से जो भी टकराया वो मारा जाएगा

इक सिपाही ने कहा, "साइकिल किधर को मोड़ दें
होश में आया नहीं मंगल कहो तो छोड़ दें"

बोला थानेदार, "मुर्गे की तरह मत बांग दो
होश में आया नहीं तो लाठियों पर टांग लो

ये समझते हैं कि ठाकुर से उलझना खेल है
ऐसे पाजी का ठिकाना घर नहीं है, जेल है"

पूछते रहते हैं मुझसे लोग अकसर यह सवाल
"कैसा है कहिए न सरजू पार की कृष्ना का हाल"

उनकी उत्सुकता को शहरी नग्नता के ज्वार को
सड़ रहे जनतंत्र के मक्कार पैरोकार को

धर्म संस्कृति और नैतिकता के ठेकेदार को
प्रांत के मंत्रीगणों को केंद्र की सरकार को

मैं निमंत्रण दे रहा हूँ- आएँ मेरे गाँव में
तट पे नदियों के घनी अमराइयों की छाँव में

गाँव जिसमें आज पांचाली उघाड़ी जा रही
या अहिंसा की जहाँ पर नथ उतारी जा रही

हैं तरसते कितने ही मंगल लंगोटी के लिए
बेचती है जिस्म कितनी कृष्ना रोटी के लिए !

कभी - कभी आते हैं


मेरी बस्ती में यूँ तो रोज सभी आते हैं।
यहाँ बसने वाले कभी- कभी आते हैं॥

सजा रहे घर अपना ही सब , दूसरों का।
-सँवारने वाले कभी - कभी आते हैं॥

आग बस्ती में लगी देख सभी हंसते हैं।
मगर रोने वाले कभी- कभी आते हैं॥

मौत सबके लिए सस्ती है मगर जीने का।
हुनर रखने वाले कभी - कभी आते हैं॥

अपलक ताकते दर पर खड़े नयन मेरे।
घर आने वाले कभी - कभी आते हैं॥

मध्य से


गत-आगत के बिच खड़े हम आस लिए ये मन में।
नया साल नव खुशियाँ लेकर आएगा जीवन में॥
                                                                                                  
इसी आस में इसी प्यास में ,
कितने साल हैं झेले। 
लोभ-क्रोध, मद-ईर्श्या के,
कितने देखे हैं मेले।
हानि-लाभ उन मेलों के सब सिमट गए दर्शन में। 
नया साल नव-खुशियाँ लेकर आएगा जीवन में॥ 


चारों तरफ़ हरियाली होगी ,
अमराई महकेगी। 
पत्ती-पत्ती गीत ग्गायेगी ,
कली- कली चहकेगी।
मुक्त सुगंध बिखेरेगी फिर हवा इसी उपवन में।
नया साल नव खुशियाँ लेकर आयेगा जीवन में॥

सुच्चित , शांत ,सुमीत बनेगा ,
वातावरण हमारा।
संदर्शन ,समभाव ,समेकन ,
फिर परिलक्षित होगा।
तब आदर्श हमारा होगा स्थापित वतन में।
नया साल नव -खुशियाँ लेकर आयेगा जीवन में॥

उदासीन सपनों में जब,
खुशियों के रंग भरेंगे।
कदम -कदम पर स्वागत ,
तब साहस ,उत्साह करेंगे।
आगे होंगे हम , होगी एक ऊर्जा नूतन तन में।
नया साल नव -खुशियाँ लेकर आयेगा जीवन में॥

हवा वसंती


आयी हवा वसंती, सन्दर्भ गीत लेकर l
लालच के बवंडर में , उलझी सी प्रीत लेकरll

कलियों में सुगबुगाहट,
फूलों को नहीं राहत l
उपवन को डराती है,
पतझड़ की सनसनाहट l
आगम मधुर मिलन का, रोता अतीत लेकर l
आयी हवा वसंती, सन्दर्भ गीत लेकर ll

अमराइयों की झुरमुट, 
कोयल की तान भी है l
रोटी को तरस जाता, 
इन्सान आज भी है ll

द्वंदों में फांसने की, अनजानी रीत लेकर l 
आयी हवा वसंती, सन्दर्भ गीत लेकर ll

फसलों की बालियों पर, 
मेरों की घास पर भी l
क्यों छायी है उजासी,
अब अमलताश पर भी l

हरने व्यथा बदन की, चुभती सी टीस लेकर l
आयी हवा वसंती, सन्दर्भ गीत लेकर ll

पर क्या करे हवा भी,
स्वभाव ही है इसका l
मौसम का व्याकरण ही,
वातावरण है इसका l

अवधारणा में सम की, विषम संगीत लेकर l
आयी हवा वसंती, सन्दर्भ गीत लेकर ll